Monday, May 23, 2016

रिश्ता

रिश्ता वो जो एक दूजे के दिल में पाया जाये 
वो रिश्ता भी क्या रिश्ता जो निभाया जाये 

Wednesday, July 2, 2014

नफरत की उमंगें जवां है

दोस्तों इस रचना की पहली पंक्ति मैंने किसी और शायर की ली है और उसी से पूरी रचना लिखी है ...ये रचना मैने ७ साल पहले लिखी थी 
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जाने क्यूँ इस शहर का हर शक्स बीमार नजर आता है 
कोई सूरत से तो कोई सीरत से लाचार नजर आता है

जज्बात ने ले ली फुर्सत, और पारसाई हो गई रुकसत 
पलकों की नमी से ये जिस्मों का बाज़ार नजर आता है

बेहयाई की इन्तिहां हो गई, फक्त खुदगर्जी जहां हो गई 
मजहब की दुकानों पे उसूलों का व्यापार
 नजर आता है

महंगी हुई है खादी, और सस्ती हुई आबादी
खदर की लिबासों में अक्सर गद्दार नजर आता है

नफरत की उमंगें जवां है, मुहब्बत न जाने कहाँ है
खुदा भी अब तो इस शहर से बेज़ार नज़र आता है

Monday, January 13, 2014

में उन लम्हों को फिर से जीना चाहता हूँ

दोस्तों ये रचना अपनी जिन्दगी पे या यूँ कहिये आम आदमी के जीवन पे बहोत पहले लिखी थी शायद मेरी बात आपके दिल तक पहुंच पाए ...अगर पहुंचे तो आप सब का आशीर्वाद चाहूँगा 

में उन लम्हों को फिर से जीना चाहता हूँ 
जिन्हें अपनी उम्मीद से बहोत कम पाता हूँ 

जवानी के रंगों को पेशे ने पोंछ डाला 
आज उनसे अपनी निगाहें चुराता हूँ 

बच्चों का तुतलाना रूठना मान जाना 
यादों के काफिले में ढूंढता जाता हूँ 

आज की ख्वाइशों को बेरहमी से मारा
कल के ख्वाब होशो-हवास में सजाता हूँ

हो जाए मुक्कमल बच्चों की जिन्दगी
अपनी जिन्दगी हर हाल में निभाता हूँ

दम घुटता है अजीजों के नादाँ मशवरों से
खामोश निगाहों से फलक देखे जाता हूँ

यारब मजबूरियों को एक बार समेट ले
सांसों को अपने अंदाज़ में लेना चाहता हूँ
-हेमन्त

Thursday, June 6, 2013

नादाँ हूँ

नादाँ हूँ, नादाँ ही मर जाना चाहता हूँ 
रिश्तों को पुर-खुलूस निभाना चाहता हूँ 
किसे कहते है कामयाबी मालूम नही 
दुश्मन को भी दोस्त बनाना चाहता हूँ 

Tuesday, March 5, 2013

मुफ्लिश की दास्ताँ

खफा होकर हमसे क्या पायेगा कोई
दगा दे के हमको क्या कमाएगा कोई

गैरों की मैहर पे गुजर कर रहें है
हमें अपना क्यूँ बानायेगा कोई

हमारे दामन पे बेसुमार रफू के घर है
इसके और क्या चीथड़े उडाएगा कोई

ख्वाइशों ख्वाबों की बातें है बेमानी
भर पेट हमें कब खिलाएगा कोई

मुफ्लिशी से बड़ी जिल्लत नही है
और निचे हमें क्या गिराएगा कोई

जहां में हमारी जरूरत बस इतनी
हमें खिला कर पुण्य कमाएगा कोई

गुमनाम सा कोई फिर मर गया है
इस मौत पे क्या कलम उठाएगा कोई

इस मौत को अर्थी न होगी मयसर
इस लाश से इल्म सिखाएगा को
-हेमन्त

Monday, March 4, 2013

मेरे जख्म.

मेरे जख्म पे ना दवा कीजे ना दुआ कीजे
जिस्त का तन्हा सहारा है थोडा और हरा कीजे

जिस्त=जिन्दगी

Sunday, September 30, 2012

होश

पूनम की चांदनी में होश गंवाया 
अमावश में तारों ने मुझे जगाया 

गमों की बारा

वो अपनी खुशी को जाहिर करने से कतराते है 
हम मुस्कान गमों की बारात में भी आजमाते है 

कैद ए ख्वाइश


कैद ए ख्वाइश से रिहाई मांगते हों
वजह ए जीस्त से जुदाई मांगते हों

Saturday, September 29, 2012

दुआ

रहूँ दुआ से बेखबर 
दुआ हों तो ऐसी हों 

Saturday, August 25, 2012

अश्क


अश्क इन्तिहाँ का इज़हार है
चाहें हों खुशी की या गम की
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हेमन्त

मुफ़लिस


मुफ़लिस आबरू की हिफाजत कहाँ कर पाता है
भूख की आग में जिस्म जलता नही बिक जाता है
-हेमन्त 

Sunday, August 5, 2012

घुटन भरी दुनिया के अंदर

घुटन भरी दुनिया के अंदर 
बचा कहाँ अब कोई कलंदर 

बसा इमारती जंगल के अंदर 
बस इतना ही तो बदला बंदर 

कोखें उजाड़ी उजाड़ी मांगें 
हासिल क्या किया सिकंदर 

कितने दरिया निगल रहा 

फिर भी प्यासा है समंदर

आइना बनता है सबका
झांक जरा तू अपने अंदर

पाक अगर है जहन तेरा
तू भी सुंदर में भी सुंदर 

जिंदगी को लतीफा

मुस्कुराते आये मुस्कुराते रह गए 
मेरी जिंदगी को लतीफा कह गए 
ऐसा था उनके जलवे का असर 
ख़ामोशी से ये तमाचा सह गए 

मर्ज–ए-इश्क


मर्ज–ए-इश्क को नब्ज से छुडाया न गया
इस आग से दामन को बचाया न गया 
जो हुए खाक, हवाओं से डर लगता है 
बिखर जायेंगे गर अश्क से भिगाया न गया 

समझ और नासमझी

अजीब रिश्ता है हमारी समझ और नासमझी के दरमियाँ 
कभी ये वो नजर आती तो कभी वो ये नजर आती 

चाहत का साया

चाहत का साया कुदरत की हर शय में है 
फ़कत इन्शानो में वो आया जाया करता