हम पत्नी को अक्सर परिहास का पात्र क्यूँ बनाते हैं
जिनके साथ गुजरेगी जिंदगी फिर उन्ही से क्यूँ बोख्लाते है
अपनों को छोड अपना कहती हमें हम उसे क्यूँ आजमाते है
मासूमियत और ममत्व की मूर्ति को खोफनाक क्यूँ बताते हैं
मकाँ को घर बनाए जो उसी को हम ज़माने में क्यूँ चिडाते है
जिंदगी के मायने को अंजाम देती, उसीके मायने को क्यूँ भूल जाते हैं
कई सवाल मुझे परीशां किये रहते और कई बार हम घबराते है
जिनके साथ गुजरेगी जिंदगी फिर उन्ही से क्यूँ बोख्लाते है
अपनों को छोड अपना कहती हमें हम उसे क्यूँ आजमाते है
मासूमियत और ममत्व की मूर्ति को खोफनाक क्यूँ बताते हैं
मकाँ को घर बनाए जो उसी को हम ज़माने में क्यूँ चिडाते है
जिंदगी के मायने को अंजाम देती, उसीके मायने को क्यूँ भूल जाते हैं
कई सवाल मुझे परीशां किये रहते और कई बार हम घबराते है
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