Wednesday, July 2, 2014

नफरत की उमंगें जवां है

दोस्तों इस रचना की पहली पंक्ति मैंने किसी और शायर की ली है और उसी से पूरी रचना लिखी है ...ये रचना मैने ७ साल पहले लिखी थी 
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जाने क्यूँ इस शहर का हर शक्स बीमार नजर आता है 
कोई सूरत से तो कोई सीरत से लाचार नजर आता है

जज्बात ने ले ली फुर्सत, और पारसाई हो गई रुकसत 
पलकों की नमी से ये जिस्मों का बाज़ार नजर आता है

बेहयाई की इन्तिहां हो गई, फक्त खुदगर्जी जहां हो गई 
मजहब की दुकानों पे उसूलों का व्यापार
 नजर आता है

महंगी हुई है खादी, और सस्ती हुई आबादी
खदर की लिबासों में अक्सर गद्दार नजर आता है

नफरत की उमंगें जवां है, मुहब्बत न जाने कहाँ है
खुदा भी अब तो इस शहर से बेज़ार नज़र आता है

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