Tuesday, March 5, 2013

मुफ्लिश की दास्ताँ

खफा होकर हमसे क्या पायेगा कोई
दगा दे के हमको क्या कमाएगा कोई

गैरों की मैहर पे गुजर कर रहें है
हमें अपना क्यूँ बानायेगा कोई

हमारे दामन पे बेसुमार रफू के घर है
इसके और क्या चीथड़े उडाएगा कोई

ख्वाइशों ख्वाबों की बातें है बेमानी
भर पेट हमें कब खिलाएगा कोई

मुफ्लिशी से बड़ी जिल्लत नही है
और निचे हमें क्या गिराएगा कोई

जहां में हमारी जरूरत बस इतनी
हमें खिला कर पुण्य कमाएगा कोई

गुमनाम सा कोई फिर मर गया है
इस मौत पे क्या कलम उठाएगा कोई

इस मौत को अर्थी न होगी मयसर
इस लाश से इल्म सिखाएगा को
-हेमन्त

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