Sunday, June 3, 2012

जज्बात

हर शक्श अपने जज्बात के घेरे में कैद रहता है 
जज्बात ही खुशी और गम का एहसास देता है 


Sunday, May 27, 2012

“तुम्हारी माँ क्या कहती है “


दोस्तों अपनी कलम से एक नया प्रयोग किया है शायद आप लोगों को पसंद आए
इसकी प्रेरणा मुझे एक विज्ञापन से मिली 

College में seniors रेगिंग करते वक्त एक बेहद सीधे साधे और खामोश खड़े एक लड़के को पूछते है तुम्हारी माँ क्या कहती है और वो लड़का जवाब देता है


मेरी माँ कहती है बेटा........ज़माने के सितम को जहन में ना बसाना, सोच बीमार हों जायेगी. 
मेरी माँ कहती है बेटा........अज्जिजों में अपनों की पहचान करना, ठोकरों से बच पाओगे 
मेरी माँ कहती है बेटा........होश्लों को काबिलियत से सींचना, वो मज़बूत होंगे 
मेरी माँ कहती है बेटा........चाहत में रूह की हिस्सेदारी रखना, धोखा खाने से बच जाओगे 
मेरी माँ कहती है बेटा........अपने पाओं को मिटी और धुल चखाते रहना, गिरने से बच जाओगे 
मेरी माँ कहती है बेटा........अपनी सीरत को गुल के मानिंद बनाना, खार का खोफ मिट जायेगा 
मेरी माँ कहती है बेटा........इज्ज़त कमाना, कभी खरीदने की कोशिश ना करना 
मेरी माँ कहती है बेटा........अपने जज्बात को जगाए रखना, वरना हेवान जाग जायेगा 
मेरी माँ कहती है बेटा........अपने जमीर हिफाजत करना, आत्मग्लानी से बच जाओगे 
मेरी माँ कहती है बेटा........जमीं से जुड कर दुनिया की तमाम ऊँचाइयों को छूने की कोशशि करना 

इतना कहते कहते उस लड़के का गला भर आया और बोला मेरी माँ सदा मुझे ख्वाबों में बहोत कुछ कहती है हकीकत में तो वो मेरे बच्चपन में ही भगवान को प्यारी हों गई थी
-
हेमन्त 

Note-
ये पूरा काल्पनिक है

मेरे खुश मिजाज़ दोस्तों की नजर कर रहा हूँ

उनका मिजाज़ इत्र के मानिंद महक छोड जाता है 
नादानी में जो लगी गले, उस अना को तोड़ जाता है 


वो रिश्ता क्या रिश्ता

वो रिश्ता क्या रिश्ता जो मजूबरी से निभता है 
वो रिश्ता मधुर रिश्ता जिसमें प्रेम रस रिसता है 


टूट के चाहा

उन्हें टूट के चाहा इस कदर रेत के मानिंद बिखर गया 
चूमती गुजरी हवा और मेरा वजुद न जाने किधर गया


शहर भी नही


ये सहरा नही तो ये शहर भी नही है 
हुजुम-ए-जीस्त यहाँ, एक बशर भी नही है 

ख्वाबों को जकड़े

ज़िन्दगी कहती चन्द ख्वाबों को जकड़े रहिये 
अफ़सोस वक्त ने हाथों की ताकत छिन ली 


आब अंदर लिए

ये जो पलकें हैं आब अंदर लिए हुए 
कतरा है बेकरार समंदर लिए हुए 


रौशनी में

रौशनी में दुनिया गले लगाती है 
तीरगी में परछाइयाँ भी दगा देती है 


दौर-ए -बेरुखी


जब भी देखा आइना किसी और को पाया हमने 
दौर-ए -बेरुखी में नकाब पे नकाब आजमाया हमने 

Sunday, April 15, 2012

यादों का काफिला



 जिंदगी फ़कत यादों का काफिला बन के रह गई
ना मिल सकेंगे अब अश्कों में डुबो के वो कह गई 

खुशी

खुशी ने हर एक में अपना आशियाँ बनाया है 
जिसे है इल्म इसका वही दर खोल पाया है 


इन्तिज़ार


हकिक्त तो इन्तिज़ार में गुजर ही रहा था
अब तसवुर में भी इन्तिज़ार मयसर हों रहा 

Sunday, April 8, 2012

रूह को दफन

कर सके जो रूह को दफन एसी जमीं मिलती नहीं 
ये तो वो शय हो जो हवा-ओ-आब पे पलती नही 


कर्ज माँ का

ममत्व के मुकाबिल जहां में कोई जज्बात नही 
कर्ज माँ का उतार पाऊं एसी मेरी औकात नही 

तालाब तो हम है

तालाब तो हम है और हमारी प्यास भी कम है 
समंदर कि प्यास नहीं बुझती इस बात का गम है 


हमारी फितरत

मुहब्बत ही मुहब्बत है और प्यार यहीं है 
हमारी फितरत में खुदगर्जी का व्यापर नही है 


ज़ख्मों का जखीरा

ज़ख्मों का जखीरा बना ये जिगर मेरा 
उनकी बक्शी खरोंचें अब परीशां नही करती 

मंजिल का रास्ता

हमें मकाम ने इस कदर उलझाया है 
मंजिल का रास्ता कहाँ नज़र आया है


ऐसा सर नहीं रकते

झुके जो गेर के आगे ऐसा सर नहीं रकते
डर के सिकुड जाये ऐसा जिगर नहीं रखते 

उम्र गुज़रे फलक में ऐसा होश्ला रखते है 
चंद लम्हों में थक जाए ऐसे पर नहीं रखते 

सबसे चाहत, है यही मेरी इबादत का जरिया 
बेजां तल्खियत का जेहन पे असर नहीं रकते